कब

स्त्री हूँ मैं
बहुत कुछ सोचना पड़ता है मुझे
कब सोना है,
कब उठना है ।
कब रोना है,
कब हंसना है ।
कब खाना है,
कब पीना है ।
कब टूटना है,
कब जुड़ना है ।
कब प्यार करना है,
कब धोखा खाना है ।
कब ‘बलत्कृत’ होना है,
कब सांसें छोड़नी है ।
पीड़ा – शारीरिक या मानसिक,
इससे ब्याह तो स्त्री रूप के साथ ही हो गया था ।
परन्तु पीड़ा की पराकाष्ठा के समय,
अपना वजूद खोने के समय,
यह ‘कब’ का सही निर्णय ही निर्धारित करेगा,
कि मुझे पीड़िता के रूप में स्वीकार किया जायेगा,
या अपराधी के रूप में ।
मुझे सहानुभूतियां मिलेंगी
या फिर गालियां ।
मुझे समाचारपत्र में जगह मिलेगी,
या घर के बगीचे की मिटटी में ।
मैंने देखा है,
मेरे बलत्कृत होने से,
सल्तनत का पतन होते हुए
और मेरे बलत्कृत होने से,
समाज की लताड़ना सुनते हुए ।
सब समय की बात है ।
फुल्लन देवी से लेकर भंवरी देवी तक,
निर्भया से लेकर इमराना तक
मैंने अपने हिस्से की पीड़ा झेली,
कभी लड़ पायी,
कभी बस धीरे से आँखें मूँद ली ।
लेकिन फिर भी हिस्सा बन पायी मैं,
इस इतिहास का ।
इन्साफ भले ना मिला मुझे,
पर आवाज़ मिली ।
लेकिन इसके विपरीत,
अधिकतर ऐसी रह गयीं मैं,
जिसमे मेरा निर्णय सही नहीं था,
उस ‘कब’ का
बलत्कृत होने के लिए ।
और इसलिए रह गयी,
बस आम औरत की तरह,
बस बलत्कृत होकर ।
किसी ने नहीं पहचाना मुझे,
किसी ने आवाज़ नहीं उठायी,
कोई रैली नहीं निकली  ।
मेरी अधउठी जबान दफ़न हो गयी,
ना इन्साफ मिला, ना ही वजूद ।
– राजेश ‘आर्य’
१५ दिस० २०१३

About राजेश 'आर्य'

समय चला और मैं भी उसके साथ-साथ ।अब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है कहीं कुछ पीछे छुट गया है, लेकिन क्या? अपनी डायरी टटोलता हूँ, तो उसमें धुंधला-धुंधला सा दिखता है पंक्तियों में गूँथा मेरा अतीत ।उसी अतीत को कुछ खंगालकर बेहतर जीने की कोशिश है यह ब्लोग ।
यह प्रविष्टि कविता में पोस्ट की गई थी। बुकमार्क करें पर्मालिंक

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